Home राजनीति पंजाब में आरक्षण के झुनझुने से सत्ता पाने की कवायद कर रहा NDA

पंजाब में आरक्षण के झुनझुने से सत्ता पाने की कवायद कर रहा NDA

0
पंजाब में आरक्षण के झुनझुने से सत्ता पाने की कवायद कर रहा NDA

[ad_1]

राजनीतिक दलों की हालत यह हो गई है कि सत्ता पाने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। बेशक उसका कोई व्यवहारिक और कानूनी आधार हो या नहीं। उनकी बला से देश की एकता-अखंडता ऐसे मुद्दों से भले ही प्रभावित हो।

राजनीतिक दलों को अभी भी लगता है कि आरक्षण का पासा फेंक कर मतदाताओं से अपना उल्लू सीधा किया जा सकता है। इसके बावजूद कि यह मुद्दा कई चुनाव में बुरी तरह पिट चुका है। मतदाता हकीकत जानते हुए ऐसे प्रलोभनों को खारिज कर चुके हैं। यहां तक कि निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट ऐसे प्रयासों को गैरकानूनी करार दे चुके हैं। इसके बावजूद राजनीतिक दल इसका मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं। आरक्षण का नया शगूफा पंजाब विधानसभा चुनावों के मद्देनजर भाजपा नीति गठबंधन (एनडीए) ने छोड़ा है। एनडीए को लगता है कि पंजाब कांग्रेस के हाथ से सत्ता हथियान के लिए यह कारगर हथियार साबित होगा।

इसे भी पढ़ें: CM चन्नी के हेलीकॉप्टर को नहीं मिली उड़ान भरने की इजाजत तो केंद्र सरकार पर बरसे सुनील जाखड़, कही यह बात

आश्चर्य की बात यह है कि इस मुद्दे पर एनडीए ने पिछले दिनों हरियाणा की भाजपा सरकार के विफल हुए प्रयास से भी सबक नहीं सीखा। हरियाणा की मनोहर लाल खट्टर सरकार ने निजी क्षेत्र में आरक्षण का बिल विधानसभा में पारित कर इसे प्रदेश के लोगों के लिए कानूनी अधिकार बनाने की कवायद की थी। इस मुद्दे पर खट्टर सरकार को कानून की चौखट पर मुंह की खानी पड़ी। हाईकोर्ट ने निजी क्षेत्र हरियाणा के लोगों को 75 प्रतिशत देने के कानून पर रोक लगाते हुए इस राजनीतिक मुद्दे की हवा निकाल दी। इससे पहले महाराष्ट्र सरकार को भी आरक्षण के मुद्दे पर अदालत से हार का सामना करना पड़ा था। सुप्रीम कोर्ट ने इसे गैर कानूनी घोषित कर दिया था। इसके बावजूद पंजाब चुनाव में एनडीए आरक्षण कार्ड खेलने से बाज नहीं आई। एनडीए ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में सरकारी नौकरियों में पंजाब के लोगों को 75 प्रतिशत और निजी क्षेत्र में 50 प्रतिशत आरक्षण देने का वायदा किया है। 

राजनीतिक दलों की हालत यह हो गई है कि सत्ता पाने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। बेशक उसका कोई व्यवहारिक और कानूनी आधार हो या नहीं। उनकी बला से देश की एकता-अखंडता ऐसे मुद्दों से भले ही प्रभावित हो। इससे पहले कर्नाटक, गुजरात और दूसरे राज्य भी अपने राज्यों के लोगों के लिए सरकारी नौकरी में आरक्षण का प्रावधान कर चुके हैं। सवाल यह है कि ऐसे प्रयासों से क्या देश के संघीय ढांचे पर आंच नहीं आती है। ऐसे प्रयास क्या देश को कमजोर नहीं करते हैं। हर राज्य यदि अपने हिसाब से ऐसे मुद्दे तय करेगा तो देश की सार्वभौमिक नागरिकता का क्या होगा। सवाल यह भी है कि जब सभी राज्य केवल अपने लोगों को ही सरकारी नौकरी में आरक्षण देगें तो इससे किसका भला होगा। नौकरी देने के मामले में राज्यों की यह पाबंदी आगे चल कर उन्हीं के निवासियों के लिए दूसरे राज्यों के द्वार बंद कर देंगे। 

बड़ा सवाल यह भी उठता है कि क्या आरक्षण देने से बेरोजगारी कम हो जाएगी। आखिर राज्यों में सरकारी नौकरी के कितने नए रिक्त पदों पर भर्ती की जाती है। बेरोजगारों की बढ़ती फौज के सामने सरकारी नौकरी का टुकड़ा फेंकना महज एक छलावे से अधिक कुछ नहीं है। ऐसे छलावों से राजनीतिक दल चुनावों में वायदों की पोटली खोल देते हैं। इसके प्रभावों के आकलन की कोई जेहमत नहीं उठाता। केंद्र और राज्यों द्वारा आरक्षण की अनेक कोशिशों के बावजूद देश में बेरोजगारों की संख्या सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती जा रही है। आरक्षण के जरिए रोजगार महज चुनिंदा लोगों को ही हासिल होता है, देश की एक बड़ी आबादी को रोजगार देने के लिए राजनीतिक दलों के पास ना तो चिंतन है और ना ही कोई कार्य योजना।

इसे भी पढ़ें: हिजाब विवाद पर जहर उगल कर माहौल खराब कर रही है कांग्रेस

होना तो यह चाहिए कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण के जरिए मतदाताओं को भ्रमित करने के बजाए रोजगार के वैकल्पिक उपायों पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। निजी क्षेत्र को अधिक से अधिक प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। स्वरोजगार कौशल की योजनाओं को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। रोजगारपरक शिक्षा का प्रावधान किया जाना चाहिए। इसके साथ ही स्टार्ट अप और परंपरागत रोजगार को आगे बढ़ाने के लिए नीतियां बनाई जानी चाहिए। इस तरह के दीर्घकालिक उपाय करने के बजाए सरकारी नौकरी में आरक्षण का झुनझुना थमा कर समस्या का समाधान ढूंढ़ना शतुरमुर्ग की तरह रेत में गर्दन गढ़ाने के समान है। देश की बढ़ती आबादी के साथ ही यह समस्या बेहद गंभीर रूप धारण कर चुकी है। इसकी गंभीरता को सतही तौर पर सुलझाने के प्रयासों से भविष्य में यह ज्यादा विकृत रूप लेगी। राजनीतिक दलों को अपने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों से परे हट कर रोजगार देने की चुनावी घोषणाओं की होड़ के बजाए एकजुट होकर इसका स्थायी और दीर्घकालिक समाधान तलाश करना चाहिए। अन्यथा बेरोजगारी का विस्फोट देश के सामने चुनौतियां पेश करता रहेगा। 

– योगेन्द्र योगी

[ad_2]

Source link

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here