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यूनिफॉर्म सिविल कोड लाकर सभी नागरिकों के लिए कानून में एकरूपता के जरिये सामाजिक एकता को बढ़ावा को सुनिश्चित किया जा सकता है। मुस्लिम महिलाओं की स्थिति इससे बेहतर होगी।
आज आपको थोड़ा फ्लैश बैक में लिए चलते हैं, एक दौर था जब गांवों में साइकिल पर सवार खाकी ड्रेस पहने डाकिया आता था। डाकिया को देख सभी लोगों के चेहरे खुशी के खिल जाते थे कि शायद उनके लिए कोई डाक लाया होगा। लेकिन क्या हो अगर वो खाकी ड्रेस वाला डाकिया अचानक सिर पर सफेद टोपी, सफेद कुर्ता और लुंगी पहन रखी हो। मान लीजिए आपका फोन गुम हो गया हो और पुलिस थाने की ओर रूख करे तो देखें कि जिसके सामने आप रपट लिखाने के लिए आएं हैं उसने अपनी खाकी वर्दी की बजाए सफेद रंग का लंबा सा गाउन पहन रखा है और पैरों में लंबे बूट आपको थोड़ा अजीब लगेगा। आप कोर्ट जाए और देखें कि किसी मामले की पैरवी करने के लिए मौजूद वकील पठानी सूट पहन कर जिरह करने के लिए जज के सामने उपस्थित हुआ है। आप कह रहे होंगे की ये कैसी बातें कर रहे हैं आज हम, हर जगह के लिए अपना गणवेश निर्धारित है, ड्रेस कोड तय किए गए हैं। मसलन, वकीलों के लिए काला कोट और पुलिस के लिए खाकी वर्दी। उसी प्रकार स्कूल में पढ़ने वाले छात्रों के लिए भी गणवेश निर्धारित हैं। इन दिनों स्कूलों के अंदर गणवेश को लेकर विवाद अपने चरम पर है। यूनिफॉर्म को लेकर भी खूब चर्चा हो रहाी है और यूनिफॉरम सिविल कोड को लेकर भी।
यूनिफॉर्म का मतलब
यूनिफॉर्म का मतलब गणवेश या ड्रेस नहीं होता, वर्दी नहीं होती। यूनिफॉर्म मतलब होता है एक समान। फ़िज़िक्स का बेसिक पढ़ते हुए यूनिफॉर्म मोशन जैसी चीज़ें पढ़ी होंगी। कॉन्सेप्ट वही है। जो एक समान हो। वही यूनिफ़ॉर्मिटी जब कपड़ों में लायी गयी तो सभी एक-से कपड़े पहनने लगे और वह कपड़ा यूनिफॉर्म हो गया। मकसद समानता लाने भर का था। स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे खुद को एक समान समझें। मंत्रा का बेटा हो या संतरी का, हिन्दू का बच्चा हो या मुसलमान का। स्कूल में दाखिल होते ही सब एक समान। बच्चों के मासूम मन में कोई हीनता, द्वेष न आए इसलिए यूनिफॉर्म को लाया गया। सब कक्षा में एक साथ बैठे तो समानता का अनुभव हो। इस बात पर ध्यान ही न जाए कि ये इस धर्म का है और वो उस धर्म का है। फिर स्कूल और कॉलेज जाने का असल मकसद ही समाप्त हो जाएगा।
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छात्रों को धार्मिक परिधान पहनने की इजाजत
कर्नाटक हाईकोर्ट की तरफ से हिजाब विवाद को लेकर कई महत्वपूर्ण बाते कहीं। जो न केवल कर्नाटक के लोगों के लिए बल्कि पूरे देश के लोगों के लिए भी सुनने योग्य बातें हैं। कोर्ट की तरफ से कहा गया है कि जब तक इस मामले में कोई अंतिम फैसला नहीं आ जाता तब तक छात्रों को धार्मिक परिधान पहनने की इजाजत नहीं होगी। यानी न तो मुस्लिम छात्राएं हिजाब पहन सकती हैं और न ही हिन्दू छात्र भगवा गमछा पहनकर स्कूल आ सकते हैं। इसके साथ ही अदालत इस बात की समीक्षा करेगी कि स्कूल, कॉलेज में हिजाब पहनना मौलिक अधिकार है या नहीं? इस पर एक संवैधानिक विचार जरूर होना चाहिए और पूरे देश के सामने ये बात स्पष्ट होनी चाहिए कि किसी भी समुदाय का धार्मिक परिधान पहनकर स्कूल या कॉलेज जाना क्या किसी का मौलिक अधिकार है या नहीं? ये पूरा मामला स्कूल यूनिफॉर्म को लेकर है।
देश में समान नागरिक संहिता कितना जरूरी?
स्कूलों में स्कूल की यूनिफॉर्म पहनी जाएगी या कोई भी छात्र अपनी मर्जी से कुछ भी कपड़े पहनकर आ सकता है। मूल विषय ये है। चाहे वो मुसलमान छात्र हो सकता है, हिन्दू छात्र हो सकता है। क्रिश्चिन और दूसरे धर्म का भी हो सकता है। किसी भी स्कूल यूनिफॉर्म पहनकर आना चाहिए। न तो केसरी रंग का गमछा होना चाहिए और न ही नकाब होना चाहिए। उत्तराखंड के चीफ मिनिस्टर पुष्कर सिंह धामी ने ये ऐलान किया है कि इलेक्शन के बाद सरकार बनते ही प्रदेश में यूनिफॉर्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता को लागू किया जाएगा। हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के मुताबिक, देश में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) ज़रूरी और अनिवार्य रूप से आवश्यक है। ऐसे में आज समझते हैं कि आखिर यूनिफॉर्म सिविल कोड की अवधारणा कैसे अस्तित्व में आई? आजादी के बाद के दौर में इसको लाने के लिए क्या कदम उठाए गए, कानूनी पेंचिदगी क्या है और वर्तमान की सरकार इसे अब तक क्यों नहीं लागू कर पाई है?
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100 साल से ज्यादा हो गए लेकिन ये मुल्क यूनिफॉर्म सिविल कोड की पहेली को सुलझा नहीं पाया। जब भी यूनिफॉर्म सिविल कोड को कानूनी जामा पहनाने की कोशिश हुई, विरोध की तलवारें चमकी और फिर इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। वजह क्या रही ये बताने से पहले हम आपको ये बताते हैं कि मोटे तौर पर यूनिफॉर्म सिविल कोड आखिर है क्या?
यूनिफॉर्म सिविल कोड का मतलब है कि देश के सभी नागरिकों के लिए एक कानून हो। फिलहाल अलग-अलग मजहब के लिए अलग-अलग पर्सनल लॉ हैं। यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू हुआ तो सभी मजहबों के लिए शादी, तलाक, गोद लेने और जायदाद बंटवारे के लिए एक कानून हो जाएगा। फिलहाल इन मामलों का निपटारा हर धर्म के पर्सनल लॉ के तहत होता है। देश का संविधान समान नागरिक संहिता को समर्थन करता है। संविधान के अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता का जिक्र है। लेकिन जब भी संविधान के व्याख्या के तहत कानून को ढालने की कोशिश हुई सियासत आड़े आ गई।
यूरोपीय देशों में 19वीं शताब्दी में पहली बार सामने आया विचार
ऐतिहासिक रूप से यूसीसी का विचार 19वीं शताब्दी और 20वीं शताब्दी की शुरुआत में यूरोपीय देशों में तैयार किए गए समान कोड से प्रभावित है। 1804 के फ्रांसीसी कोड ने उस समय प्रचलित सभी प्रकार के प्रथागत या वैधानिक कानूनों को खत्म कर दिया था और इसे समान नागरिक संहिता से बदल दिया। बड़े स्तर पर यह पश्चिम के बाद एक बड़ी औपनिवेशिक परियोजना के हिस्से के रूप में राष्ट्र को ‘सभ्य बनाने’ का एक प्रयास था। हालांकि, 1857 में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ने ब्रिटेन को एक सख़्त संदेश दिया कि वो भारतीय समाज के ताने बाने को नहीं छेड़े और शादियां, तलाक, मेनटेनेंस, गोद लेने और और उत्तराधिकार जैसे मामलों से संबंधित कोड में कोई बदलाव लाने की कोशिश नहीं करे।
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मुसलमानों के मामलों का फैसला शरीयत के मुताबिक होता रहा
स्वतंत्रता के बाद, विभाजन की पृष्ठभूमि के खिलाफ, जिसके परिणामस्वरूप सांप्रदायिक वैमनस्य और व्यक्तिगत कानूनों को हटाने के प्रतिरोध के परिणामस्वरूप यूसीसी को एक निर्देशक सिद्धांत के रूप में समायोजित किया गया जैसा कि ऊपर चर्चा की गई है। हालांकि, संविधान के लेखकों ने संसद में एक हिंदू कोड बिल लाने का प्रयास किया जिसमें महिलाओं के उत्तराधिकार के समान अधिकार जैसे प्रगतिशील उपाय भी शामिल थे, लेकिन दुर्भाग्य से, इसे हक़ीक़त में नहीं बदला जा सका। 1955 में हिंदू मैरिज एक्ट, 1956 में ही हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदू दत्तक ग्रहण और पोषण अधिनियम और हिंदू अवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम अस्तित्व में आया। हिंदुओं के लिए बनाए गए कोड के दायरे में सिखों, बौद्ध और जैन धर्म के अनुयायियों को भी लाया गया। दूसरी तरफ भारत में मुसलमानों के शादी-ब्याह, तलाक़ और उत्तराधिकार के मामलों का फैसला शरीयत के मुताबिक होता रहा, जिसे मोहम्मडन लॉ के नाम से जाना जाता है।
भेदभावपूर्ण प्रावधान को इस तरह हटाया गया
5 सितंबर 2005 को जब हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005, भारत के राष्ट्रपति की सहमति से पारित हुआ तब कहीं जाकर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में संपत्ति के अधिकारों के बारे में भेदभावपूर्ण प्रावधान हटाया जा सका। इस संदर्भ में, न्यायिक दृष्टिकोण से, सर्वोच्च न्यायालय ने कई मामलों में देश में एक यूसीसी होने के महत्व पर ज़ोर दिया है, जिसका विश्लेषण करने की आज ज़रूरत है। शाह बानो बेगम मामले से लेकर हाल ही में शायरा बानो बनाम भारत संघ के मामले में, जिसने तलाक-ए-बिद्दत (तीन तलाक़) की प्रथा की वैधता पर सवाल उठाए और इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया।
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क्रिमिनल प्रोसेजर कोड की धारा 125
हिंदू पर्सनल लॉज के कोडिफिकेशन के 3 दशक बाद सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो बेगम मामले में ऐतिहासिक फैसला दिया। कोर्ट ने क्रिमिनल प्रोसेजर कोड की धारा 125 के तहत फैसला दिया कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला को भी इद्दत की अवधि के बाद उसके पति की ओर से तब तक गुजारा भत्ता मिलेगा, जबतक वह दूसरी शादी नहीं करती। मुख्य न्यायाधीश वाई वी चंद्रचूड़ ने कहा कि संसद को एक सामान्य नागरिक संहिता की रूपरेखा तैयार करनी चाहिए क्योंकि यह एक ऐसा साधन है जो कानून के समक्ष राष्ट्रीय सद्भाव और समानता की सुविधा प्रदान करता है। मौलानाओं और मुस्लिम कट्टरपंथियों के दबाव के आगे राजीव गांधी सरकार झुक गई। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए सरकार मुस्लिम वुमन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन डाइवोर्स) ऐक्ट, 1986 लाई। 2001 में डैनियल लतिफी, 2007 में इकबाल बानो केस और 2009 में शबाना बानो मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि मुस्लिम महिलाओं को धारा 125 के तहत मिले फायदों से वंचित नहीं किया जा सकता।
अगले दशक तक, इस मुद्दे पर चुप्पी छाई रही लेकिन फिर सरला मुद्गल, अध्यक्ष, कल्याणी और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य का मामला आया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से समान नागरिक संहिता को एक हिंदू मॉडल के रूप में देश की रक्षा और राष्ट्रीय एकता को सुनिश्चित करने के लिए इसे अमल में लाने का आग्रह किया। जॉन वल्लामट्टोम केस (2003) में सुप्रीम कोर्ट ने जोर देकर कहा कि संविधान के अनुच्छेद 44 में जो लक्ष्य तय किए गए हैं, उन्हें हासिल किया जाना चाहिए।
सरकार ने इस दिशा में नहीं बढ़ाए कदम
यूनिफॉर्म सिविल कोड आरएसएस और जनसंघ के संकल्प में रहे तो बीजेपी के मेनिफेस्टों में ही बरसों तक बने रहे। गठबंधन सरकारों के दौर में बीजेपी ने हमेशा इन विवादित मुद्दे से खुद को दूर रखा। वाजपेयी की अगुआई में बीजेपी ने 13 पार्टियों का गठबंधन एनडीए बनाकर सरकार गठित की। बहुमत नहीं होने और गठबंधन धर्म की मजबूरियों के चलते बीजेपी अपने चुनावी वादों को पूरा करने के लिए कुछ खास नहीं कर पाई। 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी को पूर्ण बहुमत मिला। इसके बाद भी पहले कार्यकाल में इन मुद्दों पर पार्टी कुछ अलग नहीं कर पाई। लेकिन तीन तलाक और 370 के खात्मे के फैसले पारित करवा लिए। केंद्रीय कैबिनेट ने लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र 21 वर्ष करने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी, जो लैंगिक समानता सुनिश्चित करने के लिए एक सराहनीय कदम कहा जा सकता। ऐसे में क्या यूनिफॉर्म सिविल कोड लाकर सभी नागरिकों के लिए कानून में एकरूपता के जरिये सामाजिक एकता को बढ़ावा को सुनिश्चित किया जा सकता है। मुस्लिम महिलाओं की स्थिति इससे बेहतर होगी। चूंकि भारत की छवि एक धर्मनिरपेक्ष देश की है। ऐसे में कानून और धर्म का आपस में कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए। सभी लोगों के साथ धर्म से परे जाकर समान व्यवहार लागू होना जरूरी है।
कुल मिलाकर ‘हम भारत के लोग’ संविधान के खिलाफ नही है और, संविधान के ही अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता को लागू करने की बात कही गई है। आसान शब्दों में कहा जाए, तो ताजा हिजाब विवाद यूनिफॉर्म सिविल कोड को जल्द से जल्द लागू करने का माहौल बना रहा है क्योंकि, भारत में मजहब या धर्म के आधार पर अपने हिसाब से अपनी स्वतंत्रता का पैमाना तय नहीं किया जा सकता है क्योंकि, अगर ऐसा होता है, तो यह सीधे तौर पर भारत के संविधान पर ही प्रश्न चिन्ह लगाता है।
-अभिनय आकाश
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