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दुःखद स्थिति है कि भारत अपनी आजादी के अमृत महोत्सव तक पहुंचते हुए भी स्वयं को ईमानदार नहीं बना पाया, चरित्र सम्पन्न राष्ट्र नहीं बन पाया। यह सत्य है कि जब राजनीति भ्रष्ट होती है तो इसकी परछाइयां दूर-दूर तक जाती हैं।
भ्रष्टाचार एक दीमक की तरह है जो देश को, उसकी अर्थव्यवस्था को और कुल मिलाकर नैतिकता एवं मूल्यों को खोखला कर रहा है। यह उन्नत एवं मूल्याधारित समाज के विकास में बड़ी बाधा है, वही शासन व्यवस्था की भ्रष्टता सशक्त भारत निर्माण का बड़ा अपरोध है। बड़े पदों पर आसीन अधिकारियों एवं मंत्रियों-राजनेताओं के भ्रष्टाचार ज्यादा बड़ी समस्या है क्योंकि उनके उजागर होने, उजागर हो जाने पर उन्हें दबा दिये जाने की त्रासद स्थितियां अधिक चुनौतीपूर्ण हैं, उन पर लगाम लगाना ज्यादा जटिल है। यह बात हाल ही में भ्रष्टाचार के आरोप में गैस अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड के मार्केटिंग निदेशक ईएस रंगनाथन की गिरफ्तारी बताती है। सरकार के तमाम दावों के बावजूद भ्रष्टाचार पर प्रभावी लगाम नहीं लग पा रही है।
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सीबीआइ ने रंगनाथन के साथ पांच अन्य लोगों को भी गिरफ्तार किया है। इनमें कुछ कारोबारी भी हैं। इन दिनों भ्रष्टाचार का एक अन्य मामला भी चर्चा में है जिसमें नेशनल सिक्योरिटी गार्ड के डिप्टी कमांडेंट प्रवीण यादव को 131 करोड़ रुपये से अधिक की धोखाधड़ी के मामले में गिरफ्तार किया गया है। इस अधिकारी ने कितने बड़े पैमाने पर अपनी धोखाधड़ी का जाल फैला रखा था इसका पता इससे चलता है कि उसके करीब 45 खाते फ्रीज किए गए हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ईमानदार एवं भ्रष्टाचारमुक्त शासन देने के संकल्प के साथ कहा गया वाक्य कि न खाऊंगा और न खाने दूंगा, का असर मंत्रियों, सांसदों पर तो ऊपरी तौर पर दिख रहा है, लेकिन विभिन्न सरकारी कम्पनियों में भ्रष्टाचार व्यापकता से आज भी पसरा है, गेल का ताजा भंडाफोड़ इसका उदाहरण है। सरकार को इसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि अधिकारियों और कारोबारियों, अधिकारियों एवं गैर सरकारी संगठनों के बीच साठगांठ के चलते बड़े पैमाने पर टैक्स चोरी भी हो रही है और सरकारी धन सेवा के नाम पर किन्हीं खास लोगों एवं संगठनों तक पहुंच रहा है। यह टैक्स चोरी या किन्हीं खास लोगों-संगठनों को स्व-लाभ की शर्तों पर लाभ पहुंचाना भी भ्रष्टाचार का ही रूप है। लिहाजा सरकार भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए नए उपायों पर विचार करे।
आसान शब्दों में कहें तो भ्रष्टाचार उन लोगों के द्वारा जिनमें पॉवर होती है एक प्रकार का बेईमान या धोखेबाज आचरण को दर्शाता है। यह समाज की बनावट को भी खराब एवं भ्रष्ट करता है। यह लोगों से उनकी आजादी, स्वास्थ्य, धन और कभी-कभी उनके जीवन को ही खत्म कर देता है। किसी ने सही कहा है कि भ्रष्टाचार एक मीठा जहर है। भारत में हर साल खरबों की राशि या तो रिश्वतखोरी या फिर भ्रष्ट तरीकों की भेंट चढ़ जाती है जिससे कानून के शासन की अहमियत तो कम होती ही है, साथ ही स्वस्थ शासन व्यवस्था का सपना चकनाचूर होता है। आज हमारे कंधे भी इसीलिये झुक गये कि भ्रष्टाचार का बोझ सहना हमारी आदत हो गयी है। भ्रष्टाचार के नशीले अहसास में रास्ते गलत पकड़ लिये और इसीलिये भ्रष्टाचार की भीड़ में हमारे साथ गलत साथी, संस्कार, सलाह, सहयोग जुड़ते गये। जब सभी कुछ गलत हो तो भला उसका जोड़, बाकी, गुणा या भाग का फल सही कैसे आएगा? तभी भ्रष्टाचार से एक नया भारत-सशक्त भारत बनाने के प्रयासों के रास्ते में भारी रुकावट पैदा हो रही है।
प्रवीण यादव हो या रंगनाथन- ये शासन व्यवस्था पर बदनुमा दाग है। भ्रष्टाचार के ये दोनों मामले महज अपवाद के रूप में नहीं देखे जाने चाहिए, क्योंकि तथ्य यह है कि इस तरह के मामले रह-रहकर सामने आते ही रहते हैं। सीबीआई के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के तहत जब भी छापेमारी होती है तो भ्रष्टाचार के अनेक मामले सामने आते हैं। इनमें कुछ की गिरफ्तारी भी होती है, लेकिन इसके बाद भी यह मुश्किल से ही पता चलता है कि भ्रष्ट तत्वों के खिलाफ क्या कठोर कार्रवाई हुई। विडम्बना तो यह भी है कि भ्रष्टाचार के जितने मामले प्रकाश में आते हैं, उन्हें दबाने में भी एक नये तरीके का भ्रष्टाचार होता है। भ्रष्टाचार में कमी कैसे आए इस पर सरकार को गंभीरता से विचार करना होगा। आवश्यक केवल यह नहीं है कि भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारियों की निगरानी हो और उनके खिलाफ समय-समय पर छापेमारी भी की जाए। इसके साथ ही आवश्यक यह भी है कि उन कारणों का निवारण भी किया जाए जिनके चलते अधिकारी भ्रष्टाचार करने में सक्षम बने हुए हैं। यदि भ्रष्ट अधिकारियों को यथाशीघ्र सजा देने में सफलता नहीं मिलती तो फिर भ्रष्ट तत्वों को हतोत्साहित नहीं किया जा सकता।
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भ्रष्टाचार के ज्यादातर मामलों में यही सामने आता है कि अधिकारी और कारोबारी मिलकर मनमानी करते हैं। भ्रष्ट अधिकारियों और कारोबारियों के बीच मिलीभगत कोई नई बात नहीं है, लेकिन यह चिंता की बात है कि इस मिलीभगत को तोड़ने में अपेक्षित सफलता मिलती हुई नहीं दिख रही है। यह ठीक है कि केंद्र सरकार के शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार पर लगाम लगी है और भ्रष्टाचार का कोई बड़ा मामला पिछले छह-सात सालों में सामने नहीं आया है, लेकिन यह तो चिंताजनक है ही कि निचले स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार में कोई उल्लेखनीय कमी आती नहीं दिख रही है।
भ्रष्टाचार एक गंभीर अपराध है जो सभी समाजों में नैतिक, सामाजिक और आर्थिक विकास को कमजोर करता है। आज के समय में भ्रष्टाचार से भारत का कोई क्षेत्र या समुदाय बचा नहीं है। यह देश के सभी हिस्सों में फैल गया है, जो राजनीतिक, सामाजिक या आर्थिक ही नहीं बल्कि लोकतांत्रिक संस्थानों को भी कमजोर करता है, सरकारी अस्थिरता में योगदान देता है और आर्थिक विकास को भी धीमा करता है, तभी इस विकराल होती समस्या पर नियंत्रण पाने के लिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कुछ राजनीतिक एवं शासन-व्यवस्था के अरूचि के कठोर निर्णय लिये हैं, जिनके कारण मंत्रियों एवं सांसदों के मुख से दबे स्वरों में नाराजगी शासन-व्यवस्था के गलियारों में सुनी जाती है।
दुःखद स्थिति है कि भारत अपनी आजादी के अमृत महोत्सव तक पहुंचते हुए भी स्वयं को ईमानदार नहीं बना पाया, चरित्र सम्पन्न राष्ट्र नहीं बन पाया। यह सत्य है कि जब राजनीति भ्रष्ट होती है तो इसकी परछाइयां दूर-दूर तक जाती हैं। हमारी आजादी की लड़ाई सिर्फ आजादी के लिए थी- ईमानदार एवं आदर्श व्यवस्था के लिए नहीं थी। यही कारण है कि आजादी के बाद बनी सरकारों के भ्रष्टाचार का विष पीते-पीते भारत की जनता बेहाल हो गई। हजारों लोग बेकसूर जेलों में पड़े हैं। रोटी के लिए, शिक्षा के लिये, चिकित्सा के लिये, रोजगार के लिए तरसते हैं। उपचार के लिए अस्पतालों के धक्के खाते हैं। आयुष्मान जैसी योजना भी भारत में भ्रष्टाचार की शिकार हो गई। जबकि कुछ सत्तापतियों की सात पीढ़ियां सुरक्षित हो गयीं। आज हमारी व्यवस्था चाहे राजनीति की हो, सामाजिक हो, पारिवारिक हो, धार्मिक हो, औद्योगिक हो, शैक्षणिक हो, चरमरा गई है। दोषग्रस्त एवं भ्रष्ट हो गई है। उसमें दुराग्रही इतना तेज चलते हैं कि ईमानदार बहुत पीछे रह जाता है। जो सद्प्रयास किए जा रहे हैं, वे निष्फल हो रहे हैं। प्रगतिशील कदम उठाने वालों ने और शासन नायकों ने अगर व्यवस्था सुधारने में मुक्त मन से सहयोग नहीं दिया तो आजादी के कितने ही वर्ष बीत जाये, हमें जैसा होना चाहिए, वैसा नहीं हो पायेंगे, लगातार भ्रष्ट होते चले जायेंगे।
भारत अभी भी विकासशील देशों में से एक है। पूर्ण रूप से विकसित ना होने का सबसे बड़ा कारण यहां देश में बढ़ता भ्रष्टाचार ही है। भ्रष्टाचार की बढ़ती विभीषिका को नियंत्रित करने के लिये 8 नवंबर 2016 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबन्दी की घोषणा की थी। भारत में मोदी सरकार ने देश में एक नयी चुस्त-दुरूस्त, पारदर्शी, जवाबदेह और भ्रष्टाचार मुक्त कार्यसंस्कृति को जन्म दिया है, इस तथ्य से चाह कर भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। न खाऊंगा का प्रधानमंत्री का दावा अपनी जगह कायम है लेकिन न खाने दूंगा वाली हुंकार अभी अपना असर नहीं दिखा पा रही है।
सरकार को भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिये सख्ती के साथ-साथ व्यावहारिक कदम उठाने की अपेक्षा है। पिछले 75 वर्षों की भ्रष्ट कार्यसंस्कृति ने देश के विकास को अवरुद्ध किया। आजादी के बाद से अब तक देश में हुये भ्रष्टाचार और घोटालों का हिसाब जोड़ा जाए तो देश में विकास की गंगा बहायी जा सकती थी। दूषित राजनीतिक व्यवस्था, कमजोर विपक्ष और क्षेत्रीय दलों की बढ़ती ताकत ने पूरी व्यवस्था को भ्रष्टाचार के अंधेरे कुएं में धकेलने का काम किया। विडम्बना है कि पांच राज्यों में हो रहे चुनावों में भ्रष्टाचार मुख्य मुद्दा होना चाहिए, लेकिन कोई राजनीतिक दल इसे मुद्दा बनाने का साहस नहीं दिखा रहा है। देखना यह है कि क्या वास्तव में हमारा देश भ्रष्टाचार मुक्त होगा? यह प्रश्न आज देश के हर नागरिक के दिमाग में बार-बार उठ रहा है कि किस प्रकार देश की रगों में बह रहे भ्रष्टाचार के दूषित रक्त से मुक्ति मिलेगी। वर्तमान सरकार की नीति और नियत दोनों देश को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने की है, लेकिन उसका असर दिखना चाहिए।
– ललित गर्ग
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