Home राजनीति प्रयास तो बहुत हो रहे हैं, मगर आसान नहीं है युवा मतदाताओं को लुभाना

प्रयास तो बहुत हो रहे हैं, मगर आसान नहीं है युवा मतदाताओं को लुभाना

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प्रयास तो बहुत हो रहे हैं, मगर आसान नहीं है युवा मतदाताओं को लुभाना

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चुनाव के प्रचार का अंदाज ही नहीं बदला है, बल्कि नेताओं के ‘टारगेट कस्टमर’ यानि येन केन प्रकारेण जिन्हें लुभाना है, वे भी बदले-बदले से नजर आते हैं। ये चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि नई उम्र के मतदाताओं की संख्या काफी हो गई है।

विधानसभा चुनावों की घंटी बजने के बाद तमाम तरह के जोड़तोड़ सामने आये हैं। अधिकांश प्रमुख दलों के उम्मीदवारों की सूचियां जारी हो रही हैं। इस सबके बीच निर्वाचन आयोग के फैसलों के मद्देनजर राजनीतिक दल चुनाव प्रचार में वर्चुअल माध्यमों का उपयोग कर रहे हैं। आजादी के बाद ऐसा पहली बार हो रहा है, जब मतदान के पहले चरण के इतना नजदीक आने के बाद भी सियासी दल भीड़ जुटाने की कवायद में नहीं जुटे हैं। चाहे या अनचाहे फिलहाल तो रैलियों की जगह डिजीटल मीडिया से काम चलाया जा रहा है। बिल्कुल उसी तरह जैसे लॉकडाउन के दौरान आम लोगों ने बाजार की चाट की जगह घर की दाल रोटी से काम चलाया था।

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चुनाव के प्रचार का अंदाज ही नहीं बदला है, बल्कि नेताओं के ‘टारगेट कस्टमर’ यानि येन केन प्रकारेण जिन्हें लुभाना है, वे भी बदले-बदले से नजर आते हैं। ये चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि नई उम्र के मतदाताओं की संख्या काफी हो गई है। इस चुनाव में पांचों राज्यों में ऐसे मतदाताओं की तादाद 24.9 लाख है, जो पहली बार वोट डालेंगे। इनके अलावा युवा कहे जा सकने वाले मतदाताओं की भी एक बड़ी संख्या है। अकेले उत्तराखंड में करीब 57 प्रतिशत युवा मतदाता हैं और उ.प्र. में यह संख्या लगभग 26 प्रतिशत है।

राजनीतिक दलों के रणनीतिकार जानते हैं कि युवाओं को पकी हुई उम्र के तमाम मतदाताओं की तरह आसानी से कोई मीठी या कड़वी गोली देकर अपने पक्ष में करना आसान नहीं है। वोटर की उम्र और विचारों में आया अंतर गहरी राजनीति समझ रखने वालों की बेचैनी का कारण भी बन रहा है। हर चुनाव में वोट डालतेदृडालते उम्र के पायदान चढ़ने वाले मतदाताओं से युवा मतदाताओं की सोच एकदम अलग है। अधिकांश युवा किसी के परम्परागत वोटर तो नहीं ही हैं। यह नई पीढ़ी चाशनी में लिपटे शब्दों की मिठास और लुभावने वादों से कहीं ज्यादा अहमियत तर्कों और नतीजों को देती है। केवल नारे और वायदे सुनकर सुनहरे कल के दिवास्वपन में खो जाने की उम्मीद तो ऐसे वोटरों से अनुभवी राजनेताओं को भी नहीं ही होगी।

जातिगत और क्षेत्रीयता से जुड़ी बातें ऐसे अधिकांश शिक्षित युवा वोटरों के लिए संकीर्णताओं से ज्यादा कुछ नहीं हैं। युवाओं को प्रलोभन भी ज्यादा नहीं लुभाते। यह वो उम्र है, जब बेफिक्री और अल्हड़ मस्ती वाले बचपन व किशोरोवस्था को पीछे छोड़ आये युवाओं को भविष्य की चिंताएं सताने लगती हैं। टेबलेट, लैपटॉप या ऐसी किसी चीज का मोह तो कुछ को जरूर हो सकता है, लेकिन युवाओं की दिलचस्पी भविष्य संवारने वाले हालात और उनसे जुड़ी नीतियों में ज्यादा नजर आती है। नौकरी ही नहीं होगी, तो इन सबका क्या करेंगे? अधिकांश युवा सामान बांटने वाली राजनीति के बजाय आगे बढ़ाने और रोजगार के नए अवसर पैदा करने की उम्मीद जगाने वालों को पसंद करें, तो किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए। आंखों में आत्मनिर्भरता के सपने संजोने वाले युवाओं को केवल सामान बांटकर या बांटने का वायदा करके लुभाना आसान नहीं है।

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युवाओं की सबसे बड़ी चिंता उनके भविष्य और रोजगार से जुड़ी हुई है। धर्म, जाति, क्षेत्र जैसी आपस में दूरी पैदा करने वाली भावनाओं को भड़काकर उन्हें उनकी असल चिंता से अलग करने की सोच भी बेमानी लगती है। इन वोटरों से कुछ भी छिपाना आसान नहीं है। कोई दावा हो या कमेंट, आई.टी. में अच्छा खासा दखल रखने वाले युवा खूब जानते हैं कि उसकी सच्चाई को कैसे जांचा परखा जाता है। लिहाजा, इन्हें लुभाने के लिए बहुत सोच समझ कर बोला गया झूठ भी ज्यादा देर टिक सकेगा, यह सोचना इनकी काबलियत को कम करके आंकने जैसा होगा।

आरोप-प्रत्यारोप और कीचड़ उछालने वाली राजनीति भी नए मतदाताओं को आकर्षित नहीं करती। सच तो ये है कि नई पीढ़ी, राजनीति को केवल देख-सुन ही नहीं रही है, बल्कि इसे परख भी रही है। कौन कितना गिर रहा है और अपने फायदे के लिए कौन कितना गिर सकता है, यकीन मानिये नई पीढ़ी इसका अपने तरीकों से आंकलन भी करती है। ये मैजिक बुलेट थ्योरी वाले कम्युनिकेशन का दौर नहीं है। अब यह सोचना भी आश्चर्यजनक लगता है कि किसी दौर में सूचनाएं या सच जानने का केवल एक या दो साधन ही होता होगा, अब हर सूचना को जानने परखने के साधनों का अम्बार लगा हुआ है। जो सूचना किसी माध्यम से परोसी जाती है, उसका सच सामने लाना भी नई पीढ़ी जानती है और जो सच किसी दूसरे मुलम्मे में छिपा दिया जाता है, उसे बेपर्दा करने का हुनर भी इन्हें खूब आता है।

नई पीढ़ी को फिजा में घोला जाने वाला जहर भी ज्यादा प्रभावित नहीं करता है। भारी भरकम सर्वे या इमेज बिल्डिंग के विशेषज्ञों के पैंतरे भी युवाओं को भेड़ा चाल के लिए प्रेरित नहीं करते। युवा सोच को समझने वाले बाखूबी जानते हैं कि उन्हें प्रभावित करने का काम केवल भरोसा जीतकर किया जा सकता है। शिक्षित और साफ-सुथरे उम्मीदवारों, भरोसा पैदा करने वाली नीतियों और नयापन अपनाने वाली सोच उन्हें प्रभावित करती है। आज का युवा घर की चाहरदीवारी में रहकर भी पूरी दुनिया से जुड़ा हुआ है। उसे दकियानुसी या कुएं को मेढक समझ लेना किसी भी दल या उम्मीदवार को बहुत महंगा पड़ सकता है। उद्योग, आई.टी. और दूसरे सैक्टरों में बुनियादी ढांचे के विकास से युवाओं के सपने जुड़े हैं, इन्हें नजरअंदाज करके और दागों को धो-पोंछकर युवाओं का दिल जीतना आसान नहीं होगा।

– डॉ. सुभाष गुप्ता

(लेखक एक विश्वविद्यालय में पत्रकारिता एवं जनसंचार के शिक्षक हैं)

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