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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में तीसरे चरण में शामिल 16 जिलों की 59 विधानसभा क्षेत्रों में 36 विधानसभा क्षेत्र आलू उत्पादक हैं। यादव, कुर्मी बहुलता वाले इन इलाकों में किसान आलू को खरा सोना मानते हैं। अगर आलू के उत्पादन क्षेत्रों के हिसाब से देखें तो देश का सबसे बड़ा आलू उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश है।
उत्तर प्रदेश में चुनाव का तीसरा चरण आते-आते सियासी मुद्दे काफी बदल गए हैं। तीसरे चरण में न तो जाट वोटरों की नाराजगी की बात हो रही है, न ही गन्ने की मिठास या कड़वाहट पर चर्चा हो रही है। एक साल से अधिक तक चला किसान आंदोलन भी इस चरण में हासिए पर चला गया है। यहां मुस्लिम सियासत की तपिश भी कम ही दिखाई दे रही है। तीसरे चरण में बात हो रही है तो यादव वोट बैंक की, समाजवादी गढ़ की, फूलों की खेती और इत्र कारोबार की, कानपुर के उद्योग धंधो की, लेकिन सबसे बड़ा मुद्दा आलू किसान हैं। तीसरे चरण कन्नौज में भी मतदान होगा। कन्नौज इत्र कारोबार के लिए प्रसिद्ध है तो यह भी सच्चाई है कि कन्नौज की सीमा शुरू होते ही गांव-खेतों में हर तरफ आलू ही आलू नजर आने लगता है। कहीं आलू की खोदाई चल रही है, तो कहीं खुदाई के बाद खेतों ट्रैक्टरों पर आलू की बोरियां लादी जा रही हैं। भारत में आलू पहली बार 17वीं शताब्दी में यूरोप से आया था। वर्तमान में आलू की खेती देश के लगभग हर हिस्से में होती है लेकिन इसके उत्पादन में पहले स्थान पर उत्तर प्रदेश काबिज है। देश का लगभग 32 प्रतिशत आलू का उत्पादन इकलौते उत्तर प्रदेश में होता है। फर्रुखाबाद, कन्नौज, मैनपुरी और कानपुर के अरौल-बिल्हौर क्षेत्र की आलू बेल्ट में सड़क किनारे आलू के खेत दिखते हैं तो 258 शीतगृह भी. ये इस बात की गवाही देते हैं कि यहां ज्यादातर किसान आलू उगाते हैं. इनकी संख्या करीब साढ़े चार लाख के करीब है. स्वाभाविक है कि किसानों के इतने बड़े समूह की उम्मीदें भी राजनीतिक दलों से बड़ी होंगी।
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खेती-किसानी में आलू का वैसा ही महत्व है, जैसा गेहूं-चावल और गन्ने का है, लेकिन आलू किसान इस लिए दुखी रहते हैं क्योंकि उनके दर्द को कभी किसी सरकार ने समझने की कोशिश नहीं की, जबकि आलू किसान चाहते हैं कि उन्हें भी गेहूं-चावल और गन्ने की तरह आलू का न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार की तरफ से मिलना चाहिए। क्योंकि आलू बहुत जल्द खराब होने वाली फसल है। आलू को लम्बे समय तक बचाए रखने के लिए कोल्ड स्टोरेज ही एक मात्र सहारा होता है, लेकिन कोल्ड स्टोरेज में रखा आलू भी कभी-कभी उचित कीमत नहीं मिलने के कारण किसानों की कमर तोड़ देता है। हमेशा की तरह इस बार भी आलू किसान अपनी पैदावार को लेकर चिंतित हैं।
आलू किसानों का कहना है कि इस बार भी आलू की पैदावार तो ठीकठाक हुई है, बस अच्छे दाम का इंतजार है। 10 फरवरी को भाव 800 रुपये क्विंटल था, पर यह तय नहीं है कि आगे भी यही स्थिति रहेगी। चुनावी मौके पर आलू किसान तमाम राजनैतिक दलों से उम्मीद लगाए बैठे हैं कि यदि यह दल सत्ता में आने पर आूल का न्यूनतम भाव तय कर दें तो गेहूं-चावल और गन्ना किसानों की तरह आलू किसान भी इत्मीनान की सांस ले। आलू किसानों की सरकार को लेकर नाराजगी कम नहीं है। वह सवाल करते हैं कि आखिर गन्ने की तरह आलू का भाव क्यों तय नहीं होता है? आलू का औद्योगिक विकास क्यों नहीं हो रहा है? हर दूसरे साल आलू फेंकने की नौबत क्यों आती है? इसे लेकर समूचे आलू बेल्ट के किसानों में सभी दलों के प्रति गुस्सा है। विधानसभा चुनाव में तीसरे चरण में शामिल 16 जिलों की 59 विधानसभा क्षेत्रों में 36 विधानसभा क्षेत्र आलू उत्पादक हैं। आलू किसानों के दुख-दर्द को तमाम राजनैतिक दलों के नेता समझते हैं,इसी लिए सभी बड़े दलों ने आलू किसानों के लिए कई लोक लुभावन घोषणाएं की हैं। बात भाजपा की कि जाए तो उसने अपने घोषणा पत्र में मेगा फूड पार्क, एक जनपद एक उत्पाद, फूड प्रॉसेसिंग, किसानों को सिंचाई के लिए मुफ्त बिजली, स्टोरेज प्लांट आदि के वायदे किए हैं, वहीं समाजवादी पार्टी ने किसान आयोग का गठन, ग्रीन फील्ड परियोजनाओं के लिए लैंड बैंक की स्थापना, किसानों को सिंचाई के लिए मुफ्त बिजली, ब्याज मुक्त कर्ज, हर 10 किलोमीटर के दायरे में किसान बाजार नेटवर्क के तहत बाजार की स्थापना, सभी मंडलों में फूड प्रॉसेसिंग क्लस्टर। प्रदेश में पांच जगह फूड प्रॉसेसिंग क्लस्टर, कन्नौज में कंटेनर डिपो के साथ आलू निर्यात क्षेत्र की स्थापना की बात की है तो कांग्रेस ने आलू किसानों की समस्या को देखते हुए कोल्ड स्टोरेज और खाद्य प्रसंस्करण को बढ़ावा, हर ब्लॉक में कोल्ड स्टोरेज की व्यवस्था की घोषणा की है। लेकिन इन घोषणाओं से आलू किसान ज्यादा खुश नहीं हैं,वह कहते हैं कि हर चुनाव में चिप्स, अल्कोहल फैक्टरी और आलू पाउडर बनाने की बात उठती है। इस चुनाव में भी राजनीतिक दल इसके दावे करने लगे हैं। लेकिन यह दावा हकीकत में बदल पाएगा, इस पर संशय है। ऐसे में वोट उसे ही देंगे, जो आलू किसानों की बात करेगा।
कभी आप सड़क मार्ग से फर्रुखाबाद से आगे बढ़े तों कायमगंज से लेकर एटा तक और मैनपुरी से फिरोजाबाद तक खेतों में आलू के ही ढेर नजर आते हैं। सातनपुर आलू मंडी में पहुंचने वाले किसान सवाल उठाते हैं उनकी उपज की बिक्री को लेकर सरकार गंभीर क्यों नहीं होती है? आलू आधारित उद्योग नहीं लगने की वजह से उनके बच्चे उन्हें छोड़कर दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों में रोजगार के लिए जाने पर विवश हैं। क्योंकि, आलू से मिलने वाले रुपये से सिर्फ पेट भरता है। जीवन स्तर नहीं सुधारा जा सकता है। बेटी की शादी हो या बेटे की कोचिंग की फीस, इसकी भरपाई आलू की उपज नहीं कर पाती है। एटा के प्रगतिशील किसान राम लाल यादव एवं पप्पू यादव कहते हैं, चुनावी मौसम में ही सभी दलों के नेताओं को चिप्स फैक्टरी, अल्कोहल फैक्टरी, प्रसंस्करण आदि की याद आती है। अखिलेश राज में 2013 में फर्रुखाबाद के नवाबगंज में चिप्स फैक्टरी के लिए और कन्नौज में वोदका फैक्टरी के लिए जमीन अधिगृहीत की गई थी, लेकिन इसके आगे कुछ नहीं हो पाया।
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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में तीसरे चरण में शामिल 16 जिलों की 59 विधानसभा क्षेत्रों में 36 विधानसभा क्षेत्र आलू उत्पादक हैं। यादव, कुर्मी बहुलता वाले इन इलाकों में किसान आलू को खरा सोना मानते हैं। अगर आलू के उत्पादन क्षेत्रों के हिसाब से देखें तो देश का सबसे बड़ा आलू उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश है। यहां करीब 6.1 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में आलू बोया जाता है। प्रदेश में करीब 147.77 लाख मीट्रिक टन आलू का उत्पादन हुआ है। आगरा से शुरू होकर मथुरा, इटावा, फर्रुखाबाद से लेकर कानपुर देहात तक फैले आलू बेल्ट में देश में होने वाली कुल पैदावार का करीब 30 फीसदी हिस्सा पैदा होता है। डीजल की कीमतों में वृद्धि, डीएपी और यूरिया की कमी, तैयार आलू आढ़ती के सहारे होने का दर्द किसानों को बेचौन किए रहता है। फर्रुखाबाद आलू आढ़ती एसोसिएशन के अध्यक्ष रिंकू कटियार कहते हैं, यहां का आलू पश्चिम बंगाल, असम के साथ ही नोएडा भी जाता है। नोएडा में आलू पाउडर बनाने की कंपनी है। यदि यह सुविधा आलू बेल्ट में हो जाए, तो यहां के किसानों और आढ़तियों, दोनों को फायदा मिलेगा। उधर, इंडियन पोटैटो ग्रोवर एंड एक्सपोर्ट सोसायटी के राष्ट्रीय अध्यक्ष सुधीर शुक्ला कहते हैं, हर जिले में गुणवत्ता जांचने की व्यवस्था हो जाए तो अन्य राज्यों में आलू भेजना आसान हो जाये। वर्ष 2012 में सपा सरकार बनने पर तत्कालीन सहकारिता मंत्री शिवपाल सिंह यादव ने इसके लिए पहल की थी। उन्होंने निर्यात को बढ़ावा देने के लिए मंडी परिषद के किसानों को प्रशिक्षण दिलाया। बाद में पता चला कि निर्यात के लिए जरूरी रोगमुक्त प्रमाण पत्र दिए जाने की यहां व्यवस्था ही नहीं है। गन्ना परिषद की तरह आलू विकास परिषद, आलू आयोग का गठन हो, नए बीज के लिए अनुसंधान केंद्र बने और निर्यात की दृष्टिकोण से किसानों को आलू बीज उपलब्ध कराए जाएं। सरकार आलू की लागत का मूल्यांकन करे और खोदाई के वक्त बाजार भाव तय करे, तो किसानों का फायदा होने लगेगा।
– संजय सक्सेना
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